एक काला भील बालक एकलव्य |Story why dronacharya refused to teach eklavya pdf


भारत की मिट्ठी में अनेको ऐसी घटनाए होती रही जो पूरी दुनिया की अमर गाथा बन गई आज जानेंगे एकलव्य के नोट्स' के लेखक एकलव्य अपने किस गुण के कारण प्रसिद्ध है एकलव्य के पिता कौन थे एकलव्य इतिहास एकलव्य के पिता क्या करते थे एकलव्य की कहानी PDF महाभारतमें एक प्रसंग आता है कि एक बार गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ जंगल में भ्रमण कर रहे थे । भ्रमण करते – करते उनके साथ आया हुआ एक कुत्ता जंगल में रास्ता भटककर वहाँ पहुँच गया

 जहाँ एक काला सा भील बालक एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था । कुत्ता एक अजनबी काले बालक को देख उस पर भौंकने लगा । अपने अभ्यास में कुत्ते के भौंकने के कारण बाधा उत्पन्न होने से एकलव्य ने कुत्ते का मुंह तीरों से भर दिया 


कुत्ता तेजी से गुरु द्रोण और उनके शिष्यों के पास पहुँचा । कुत्ते की ऐसी हालत देख सभी हंसने लगे किन्तु अर्जुन यह देख रहा था कि किस तरह चतुरता से कुत्ते का केवल मुंह भरा गया हैं बिना उसे चोंट पहुचाएं । जब अर्जुन ने यह बात गुरु द्रोण को कही तो वे उस कुशल धनुर्धर से मिलने को उत्सुक हो उठे । जब एकलव्य को ढूंढते – ढूंढते यह मंडली उसकी कुटिया पर पहुंची तो गुरु द्रोण को अपनी प्रतिमा वहाँ देख आश्चर्य हुआ ।

एकलव्य अपने गुरु को आया देख दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़ा । सभी को कुटिया में ले जाकर जलपान कराया । सभी यह जानने को उत्सुक थे की आखिर उसने कुत्ते का मुंह तीरों से कैसे भर दिया । तब उसने बताना शुरू किया ।

बहुत पहले मैं आपके पास अपनी धनुर्विद्या सिखने की तीव्र इच्छा लेकर पहुँचा था । किन्तु आपने मुझे यह कहकर टाल दिया कि तुम्हें इसकी आवश्यकता नहीं हैं । और राज परिवार के साथ तुम्हे धनुर्विद्या सिखने का अधिकार नहीं हैं ।

अतः में निराश होकर चला आया किन्तु मेरे मन में धनुर्विद्या सिखने की उत्कंठ इच्छा और लगन थी । अतः मैंने आपकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर सिखना आरम्भ कर दिया । मुझे ऐसा लगता था जैसे आप स्वयं आकर मेरी गलतियाँ बताते और मुझे सिखाते हो ।

एकलव्य की गुरु द्रोण के प्रति ऐसी निष्ठा और समर्पण को देख सभी शिष्य आश्चर्य से एकटक उसके चेहरे को ताक रहे थे । साथ ही एक ओर से सभी उसकी भूरि – भूरि प्रशंसा कर रहे थे । तो दूसरी ओर उसकी धनुर्विद्या के सामने अपनी धनुर्विद्या को छोटा देख अर्जुन का दिल जल रहा था । चुपके से अर्जुन अपने गुरु से कहने लगा – “गुरुदेव आपने मुझे वचन दिया हैं कि आपके शिष्यों में मेरे समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं होगा” गुरु द्रोण ने इशारे से उसे समझा दिया ।

अपनी कहानी सुनाने के पश्चात् एकलव्य गुरु द्रोण से कहने लगा कि “आपकी कृपा से मैं इतना श्रेष्ठ धनुर्धर बन सका हूँ । मुझे बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ” तो गुरु द्रोण ने मौका देख अपने वचन की खातिर गुरुदीक्षा का प्रश्न सामने रख दिया । और बोले – “इस ऋण से मुक्त होने के लिए अपने दाहिने हाथ का अंगूठा हमें दे दो” । एकलव्य ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरु द्रोण के चरणों में अर्पित कर दिया । उसके इस अपूर्व त्याग और गुरु के प्रति निष्ठा के कारण आज वो इतिहास में अमर हो गया ।

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