रोगों से डरना भी एक तरह का रोग हे आईये जाने इसके लक्षण
22 August 2016
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रोगों के बारे में ज़रूरत से ज़्यादा सोचना ओर ख़ुद में रोगी के लक्षण तलाशते रहना भी अपने आप में एक रोग है। आइए आज की पोस्ट में हम इस रोग के लक्षण ढूँढे.
रोग उनके लक्षण, कारण, उपचार विधियों ओर सावधानियो के बारे में जानकारी रखना अच्छी बात है. अपने शरीर की असामान्य गतिविधियों को ताड़ना और विशेषज्ञ से सलाह लेना जागरूकता की निशानी है. शायद आप भी ऐसा करते हों. लेकिन जागरूकता और असामान्य भय में अंतर होता है. कई बार रोगों को लेकर सतर्कता और सावधानी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है और ख़ुद एक रोग का रूप ले लेती है. इसे हाइपोकॉड्रिंयासिस या इलनेस एग्ज़ाइटी डिसऑर्डर कहते है और इससे ग्रस्त व्यक्ति को हाइपोक़ॉड्रिंयासिस. इससे न की केवल मानसिक शांति प्रभावित होती है बल्कि कामकाज, रिश्तों और जेब पर भी बुरा असर पड़ता है.
1. .शरीर रोगी का घर लगता है
जिस बीमारी के लक्षण पढ़ें या सुने, दो-चार लक्षण ख़ुद में निकल ही आते है. फिर चाहे वो साधारण बीमारी हो या कैंसर ज़ेसा घातक रोग. कुछ हाईपोकॉड्रिंयाक डॉक्टर के पास जाने से डरते है कि वह जांच करके दस-बीस और बीमारियाँ न ढूंढ ले. इसलिए इंटरनेट,पुस्तकों-पत्रिकाओं और अख़बार के लेखों में रोग- लक्षण पढ़कर अपने शरीर से मिलान करते हुए वैकल्पिक पद्धतिया आज़माते रहते है. दूसरी तरह के हाईपोकॉड्रियाक लक्षण ढ़ूढते है. और बार-बार डॉक्टर के पास दोड़ते है.
2. कोई समस्या छोटी नही होती
ऐसे में सिरदर्द दिमाग़ी कैंसर का लक्षण हो सकता है और दम फूलना दिल की बीमारियों का संकेत. जिन्हें रोगों से बेवजह डरने का रोग होता है, उनके लिए कोई समस्या छोटी या साधारण नही होती. गले में ख़राश हो जाए,तो टॉन्सिल बड़ने का डर लगने लगता है या फिर साधारण सर्दी-जुखाम में भी वे स्वाइन फ्लू के लक्षण खोज लेते हैं.
3. सामान्य ज़ीवन बाधित होता है
हाईपोकॉड्रिंयाक को लगता है कि वह गम्भीर रोगो के जोखिम से घिरा है इसलिए वह ज़रूरत से ज़्यादा सावधानियाँ बरतता है, खासतोर पर साफ़-सफ़ाई को लेकर. जिनमे ऐसी चिंता काफ़ी बढ़ जाती है, वे सार्वजनिक तोर पर खाने-पीने, लोगों से मिलने-जुलने में भी डरने लगते है कि कही सक्रमण न हो जाए. ऐसे व्यक्ति का खानपान और दिनचर्या की आदतें भी असामान्य हो जाती हैं।
रोग उनके लक्षण, कारण, उपचार विधियों ओर सावधानियो के बारे में जानकारी रखना अच्छी बात है. अपने शरीर की असामान्य गतिविधियों को ताड़ना और विशेषज्ञ से सलाह लेना जागरूकता की निशानी है. शायद आप भी ऐसा करते हों. लेकिन जागरूकता और असामान्य भय में अंतर होता है. कई बार रोगों को लेकर सतर्कता और सावधानी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है और ख़ुद एक रोग का रूप ले लेती है. इसे हाइपोकॉड्रिंयासिस या इलनेस एग्ज़ाइटी डिसऑर्डर कहते है और इससे ग्रस्त व्यक्ति को हाइपोक़ॉड्रिंयासिस. इससे न की केवल मानसिक शांति प्रभावित होती है बल्कि कामकाज, रिश्तों और जेब पर भी बुरा असर पड़ता है.
1. .शरीर रोगी का घर लगता है
जिस बीमारी के लक्षण पढ़ें या सुने, दो-चार लक्षण ख़ुद में निकल ही आते है. फिर चाहे वो साधारण बीमारी हो या कैंसर ज़ेसा घातक रोग. कुछ हाईपोकॉड्रिंयाक डॉक्टर के पास जाने से डरते है कि वह जांच करके दस-बीस और बीमारियाँ न ढूंढ ले. इसलिए इंटरनेट,पुस्तकों-पत्रिकाओं और अख़बार के लेखों में रोग- लक्षण पढ़कर अपने शरीर से मिलान करते हुए वैकल्पिक पद्धतिया आज़माते रहते है. दूसरी तरह के हाईपोकॉड्रियाक लक्षण ढ़ूढते है. और बार-बार डॉक्टर के पास दोड़ते है.
2. कोई समस्या छोटी नही होती
ऐसे में सिरदर्द दिमाग़ी कैंसर का लक्षण हो सकता है और दम फूलना दिल की बीमारियों का संकेत. जिन्हें रोगों से बेवजह डरने का रोग होता है, उनके लिए कोई समस्या छोटी या साधारण नही होती. गले में ख़राश हो जाए,तो टॉन्सिल बड़ने का डर लगने लगता है या फिर साधारण सर्दी-जुखाम में भी वे स्वाइन फ्लू के लक्षण खोज लेते हैं.
3. सामान्य ज़ीवन बाधित होता है
हाईपोकॉड्रिंयाक को लगता है कि वह गम्भीर रोगो के जोखिम से घिरा है इसलिए वह ज़रूरत से ज़्यादा सावधानियाँ बरतता है, खासतोर पर साफ़-सफ़ाई को लेकर. जिनमे ऐसी चिंता काफ़ी बढ़ जाती है, वे सार्वजनिक तोर पर खाने-पीने, लोगों से मिलने-जुलने में भी डरने लगते है कि कही सक्रमण न हो जाए. ऐसे व्यक्ति का खानपान और दिनचर्या की आदतें भी असामान्य हो जाती हैं।
4. यक़ीन दिलाना मुश्किल होता है
हाईपोकॉड्रिंयाक भरोसा ही नही कर पाता की उसे रोग नहीं है. यदि जाँच के नतीजो में सब सामान्य हो,तो उसके मन में संदेह बना रहता है की जांच में ही तो गड़बड़ी नहीं हो गई, सैम्पल तो नही बदल गया, कहीं मशीन खराब तो नही हो गई? यहां तक की डॉक्टर भी उसे आश्वस्त करें, तो वह पुष्टि के लिए दूसरे डॉक्टर से मिलने की ईच्छा ज़रूर रखता है।
हाईपोकॉड्रिंयाक भरोसा ही नही कर पाता की उसे रोग नहीं है. यदि जाँच के नतीजो में सब सामान्य हो,तो उसके मन में संदेह बना रहता है की जांच में ही तो गड़बड़ी नहीं हो गई, सैम्पल तो नही बदल गया, कहीं मशीन खराब तो नही हो गई? यहां तक की डॉक्टर भी उसे आश्वस्त करें, तो वह पुष्टि के लिए दूसरे डॉक्टर से मिलने की ईच्छा ज़रूर रखता है।
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