कहानी एक बच्चे की मज़बूरी की जिसमे सरकार का बाल-सरंक्षण कानून भी असफल हो जाता हे
3 August 2016
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में बस स्टैंड पर थी. वह बच्चा पानी के पाउच बेच रहा था. भारत में लाखों बच्चों की तरह वह भी था जिसने जिंदगी की लड़ाई बहुत छोटी उम्र में ही शुरू कर दी थी. में बस के इन्तजार में बेठी पत्रिका पढ़ रही थी. तभी एक कोमल और धीमी आवाज ने मेरा ध्यान खिंचा – “आंटी बहुत गर्मी हे, ठंडा पानी लीजिये.” मेने सर उठाकर देखा तो सामने 7-8 साल का बच्चा खड़ा था जिसके हाथ में पानी के पाउच थे. हालाँकि मेरे पास पानी की बोटल थी पर बच्चे की आवाज ने मुझे उससे पानी लेने पर विवश कर दिया.
मेने पाउच लेकर बच्चे से पूछा – “कितने पैसे बता?” उसने मुस्कुरा कर कहा – “अरे आंटी, पैसे नहीं रूपये.” उसकी बात ने मेरे चेहरे पर हंसी की लकीर खिंच दी. हां सॉरी कितने रूपये?? मेरे इस सवाल पर वो बोला दो रूपये. मेने फिर उसका नाम पूछा. उसने कहा “सोनू”. जब मेने जानना चाह की वो यह काम क्यों कर रहा हे, तो वह बिना कुछ बोले चला गया और मुझे प्रश्नों के भंवर में छोड़ गया. मेरी और सोनू की बाते एक आइसक्रीम वाला सुन रहा था. उसने मुझे बताया की सोनू के पिता इसी बस स्टैंड पर फलों का ठेला लगाया करते थे. पिछले साल एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी. घर में माँ और दो बहने हे. बहने स्कूल में पढ़ती हे और माँ काम पर जाती हे. आर्थिक तंगी के चलते सोनू का स्कूल छुट गया और वह यह कार्य करने लगा. दिनभर में 100-200 रूपये कमा लेता हे.
मुझे उस बच्चे के चेहरे पर एक आत्मविश्वास दिख रहा था. हालाँकि जिंदगी की आपाधापी में बचपन कहीं ओझल होता जा रहा था. सरकार ने बेशक बच्चों से काम ना कराये जाने का कानून बनाया हे. पर सोनू को देखकर तो यही लगता हे की यह कानून भी कुछ काम का नहीं हे. अगर सोनू काम ना करता तो कैसे वो अपने परिवार का गुजारा चला पाता. सोनू जैसे बच्चो के बिषय में आज भी सरकार के पास कोई योजना नहीं हे. ना ही उनका कोई मददगार हे और ना ही भला सोचने वाला.
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