हिन्दू धर्म में कामधेनु गाय का रहस्य
22 March 2016
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हिन्दू धर्म में हमेशा से ही ‘गाय’ को एक पवित्र पशु माना गया है, ना केवल एक जीव, वरन् हिन्दू मान्यताओं ने गाय को ‘मां’ की उपाधि दी है। गाय को मनुष्य का पालनहार माना गया और इससे मिलने वाले दूध को अमृत के समान माना जाता है। लेकिन यह मान्यता कुछ महीनों, वर्षों या दशकों की नहीं...
युगों से ही गाय को पूजनीय माना गया है। यदि आप हिन्दू धर्म को समझते हैं या फिर हिन्दू मान्यताओं की जानकारी रखते हैं तो शायद आपने कामधेनु गाय के बारे में भी सुना होगा। हिन्दू धर्म के अनेक धार्मिक ग्रंथों में कामधेनु गाय का जिक्र किया गया है। कहते हैं कामधेनु गाय में दैवीय शक्तियां थीं, जिसके बल पर वह अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करती थी
कामधेनु यह गाय जिसके भी पास होती थी उसे हर तरह से चमत्कारिक लाभ होता था। लेकिन इस गाय के दर्शन मात्र से भी मनुष्य के हर कार्य सफल हो जाते थे। दैवीय शक्तियां प्राप्त कर चुकी कामधेनु गाय का दूध भी अमृत एवं चमत्कारी शक्तियों से भरपूर माना जाता था। पुराणों में कामधेनु गाय को नंदा, सुनंदा, सुरभी, सुशीला और सुमन भी कहा गया है। कामधेनु गाय से संबंधित पुराणों में कई सारी कथाएं प्रचलित हैं... कृष्ण कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्में थे। कश्यप ने वरुण से कामधेनु मांगी थी, लेकिन बाद में लौटाई नहीं। अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए
इसके चमत्कारी गुण यही कारण है कि कामधेनु गाय को मात्र एक पशु मानने की बजाय ‘माता’ की उपाधि दी गई थी। एक ऐसी मां जो अपने बच्चों की हर इच्छा पूर्ण करती है, उन्हें पेट भरने के लिए आहार देती है और उनका पालान-पोषण करती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कामधेनु गाय की उत्पत्ति कहां से हुई?
पौराणिक कथा
एक पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के समय देवता और दैत्यों को समुद्र में से कई वस्तुएं प्राप्त हुईं। जैसे कि मूल्यवान रत्न, अप्सराएं, शंख, पवित्र वृक्ष, चंद्रमा, पवित्र अमृत, कुछ अन्य देवी-देवता और हलाहल नामक अत्यंत घातक विष भी। इसी समुद्र मंथन के दौरान क्षीर सागर में से कामधेनु गाय की उत्पत्ति भी हुई थी।हिन्दू धर्म में हमेशा से ही ‘गाय’ को एक पवित्र पशु माना गया है, ना केवल एक जीव, वरन् हिन्दू मान्यताओं ने गाय को ‘मां’ की उपाधि दी है। गाय को मनुष्य का पालनहार माना गया और इससे मिलने वाले दूध को अमृत के समान माना जाता है। लेकिन यह मान्यता कुछ महीनों, वर्षों या दशकों की नहीं...
युगों से ही गाय को पूजनीय माना गया है। यदि आप हिन्दू धर्म को समझते हैं या फिर हिन्दू मान्यताओं की जानकारी रखते हैं तो शायद आपने कामधेनु गाय के बारे में भी सुना होगा। हिन्दू धर्म के अनेक धार्मिक ग्रंथों में कामधेनु गाय का जिक्र किया गया है। कहते हैं कामधेनु गाय में दैवीय शक्तियां थीं, जिसके बल पर वह अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करती थी
कामधेनु यह गाय जिसके भी पास होती थी उसे हर तरह से चमत्कारिक लाभ होता था। लेकिन इस गाय के दर्शन मात्र से भी मनुष्य के हर कार्य सफल हो जाते थे। दैवीय शक्तियां प्राप्त कर चुकी कामधेनु गाय का दूध भी अमृत एवं चमत्कारी शक्तियों से भरपूर माना जाता था। पुराणों में कामधेनु गाय को नंदा, सुनंदा, सुरभी, सुशीला और सुमन भी कहा गया है। कामधेनु गाय से संबंधित पुराणों में कई सारी कथाएं प्रचलित हैं... कृष्ण कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्में थे। कश्यप ने वरुण से कामधेनु मांगी थी, लेकिन बाद में लौटाई नहीं। अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए
इसके चमत्कारी गुण यही कारण है कि कामधेनु गाय को मात्र एक पशु मानने की बजाय ‘माता’ की उपाधि दी गई थी। एक ऐसी मां जो अपने बच्चों की हर इच्छा पूर्ण करती है, उन्हें पेट भरने के लिए आहार देती है और उनका पालान-पोषण करती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कामधेनु गाय की उत्पत्ति कहां से हुई?
कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। जबरन ले ली राजा ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया, सब तहस-नहस हो गया। लेकिन यह सब करने के बाद जैसे ही राजा सहस्त्रार्जुन अपने साथ कामधेनु को ले जाने लगा तो तभी वह गाय उसके हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई। और आखिरकार दुष्ट राजा को वह गाय नसीब नहीं हुई, लेकिन वहीं दूसरी ओर महर्षि जमदग्नि दोहरे नुकसान को झेल रहे थे। स्वर्ग की ओर चली गई कामधेनु एक ओर वे अपनी कामधेनु गाय को खो चुके थे और दूसरी ओर आश्रम भी ना रहा। कुछ समय के पश्चात महर्षि के पुत्र भगवान परशुराम आश्रम लौटे और जब उन्होंने यह दृश्य देखा तो हैरान रह गए। इस हालात का कारण पूछने पर उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेश में आ गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। यहां पहुंचने पर राजा सहस्त्रार्जुन और उनके बीच भीषण युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़, परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया। कहते हैं सहस्त्रार्जुन के वध के बाद जैसे ही परशुराम अपने पिता के पास वापस आश्रम पहुंचे तो उनके पिता ने उन्हें आदेश दिया के वे इस वध का प्रायश्चित करने के लिए तीर्थ यात्रा पर जाएं, तभी उनके ऊपर से राजा की हत्या का पाप खत्म होगा। लेकिन ना जाने कहां से परशुराम के तीर्थ पर जाने की खबर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों को मिल गई।
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