अब एक माँ पाली नहीं जाती true story in hindi
25 December 2015
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औलादों से अब ये ज़िम्मेदारी संभाली नहीं जाती ,चार-चार बेटों से मिलकर अब एक माँ पाली नहीं जाती ||ये कोई व्यंग्य नहीं है बल्कि इस समाज की एक ऐसी सच्चाई है जिसे आज चाह कर भी नकारा नहीं जा सकता | हमारे समाज में एक ऐसी ही जगह है जिसे देखकर किसी और का तो मै नहो जानती पर हाँ मेरा मूड ज़रूर ख़राब हो जाता है | ऊपर लिखी दो पंक्तियों से आप में से ज़्यादातर लोग तो समझ ही गए होंगे | जी हाँ मै बात कर रही हूँ ओल्ड ऐज होम यानि कि वृद्ध आश्रम की | इस स्थिति पर और भी ज्यादा गुस्सा तब आता है जब हमारा समाज अतिथि देवोभव और वसुधैव कुटुम्बकम की बात करता है |
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जब भी देश के समृद्ध लोग बड़े बड़े मंच पर खड़े होकर इन विषयों पर लम्बे और तथाकथित प्रवचन रुपी भाषण देते हैं तो सच में मेरा मन यही करता है कि अभी इन लोगों के घर में जाऊं और देखूं कि दूसरों के हित कि बनावटी बात सोचने वाले इन लोगों के घरों में खुद इनके माँ बाप कितने खुश और सुखी हैं |
हर साल देश में कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रहे ये वृद्ध आश्रम इस बात का साफ़ संकेत दे रहे हैं कि अब बूढ़े माँ बाप के लिए उन्ही के अपने घर में कोई जगह नहीं है | इस दुखद स्थिति कोई एक वजह नहीं है | घर के बुजुर्गों के अपने घर को छोड़ कर जाने या उन्हें जबरन आश्रम पहुचाये जाने कि कई वजहें हैं | फिर चाहे वो बढ़ता पारिवारिक कलह हो या बेटे बहू दोनों का वर्किंग होना , आर्थिक परेशनी हो या मात्र सिर्फ विचारों का मेल न खाना | वजह चाहे कोई भी हो पर झेलना तो अंततः सिर्फ एक को ही पड़ता है और वो हैं घर के बुज़ुर्ग |
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तकलीफ तो होती ही होगी कि कल किस तरह से एक एक पाई जोड़कर ये घर बनवाया था , ये सोच कर कि बुढ़ापे में नाती पोतों के साथ चैन से ज़िन्दगी गुजेंगे और इसी घर कि देहरी से आखिरी रुखसती भी लेंगे | पर नहीं , अब इस घर कि दीवारें ही उनसे कहने लगती हैं कि भाग जा , भाग जा कही ! किसी ऐसी जगह जहां कम से कम तू चैन से मर तो सके |
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पता नहीं किस पाप का खामियाजा भुगत रहा है बुढ़ापा ? परिस्थितियां तब और भी ज्यादा तकलीफदेह हो जाती हैं जब ज़िन्दगी के कई बसंत एक साथ देख चुके ये बुज़ुर्ग अचानक एक दूसरे का साथ छोड़ देते हैं | इतनी लम्बी दोस्ती का यूँ इस तरह खत्म होना उस दूसरे सदस्य को पूरी तरह से तोड़ देता है |
कुछ वक्त तो शायद यकीं भी नहीं होता होगा की हमारा सबसे पुराना दोस्त हमें छोड़ कर चला गया | पर वो बूढी हड्डियाँ वक्त के साथ समझौता करतीं हैं और एक बार फिर अपने भविष्य को अपने बच्चों और नाती पोतों में ढूँढने लगती हैं | पर नहीं उनकी ये सोच गलत साबित होती है उनका भविष्य उन्हें बड़े ही तीखे अंदाज़ में ये बता देता है की वो अब सिर्फ उनपर एक बोझ हैं जिसे वो ना चाहते हुए भी ढो रहे हैं | हर रोज़ की कलह , हर रोज़ के ताने | हर सवेरे ये अहसास दिलाना की या तो वो बहुत पीछे छूट गए हैं या फिर हम बहुत आगे निकल गए हैं |
कभी दादी नानी के मूंह से किस्से सुनाने वाले इस समाज में अब दादी नानी ही किस्सा बन कर रह गए हैं | संयुक्त परिवार की प्रथा अब यदाकदा ही देखने को मिलाती है | मेरी उम्र 28 साल है और मै यकीन के साथ कह सकती हूँ मेरी पीढ़ी शायद वो आखिरी पीढ़ी होगी जिसने दादी दादा और नाना नानी का भरपूर सुख लिया होगा | आज से औसतन 10 से 15 साल बाद जब एक नयी पीढ़ी अपना होश संभालेगी तब तक ये रिश्ते कहीं दूर बहुत दूर खो जायेंगे |
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मेरी नानी माँ
साल 2010 , 11 मई ये वो दिन था जब मैंने अपनी नानी को खोया था, उनकी डेथ के बाद मेरी ये सोच पूरी तरह से यकीन में बदल गयी कि एक बुजुर्ग ना सिर्फ किसी परिवार कि नीव होता है बल्कि उस परिवार कि ऐसी डोर भी होता है जो पूरे परिवार बो बंधे रखता है |
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