शंकर भगवान को क्यों कहा जाता है महादेव lord shiva angry history


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जो सर्वोपरि सर्वश्रेष्ठ होता है, उसे ही महान कहा जाता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में जहां 34 करोड़ देवी-देवता होने का उल्लेख है, वहीं प्रधानता ब्रह्मा-विष्णु-महेश की ही है। सृष्टि रचियता ब्रह्मा को प्रथम, पालन करता विष्णु को दूसरे और संहारकर्ता महेश -भगवान शंकर को तीसरे स्थान पर रखा गया है। इच्छित कामनाओं की पूर्ति के लिए यदि कोई तपस्या करता है, तो वह भी ब्रह्माजी अथवा विष्णु भगवान की ही करता है। भगवान शंकर की तपस्या तो विशेषकर देवताओं तथा भगवान विष्णु के विरोधी राक्षसों द्वारा ही की जाती रही है।
भगवान शंकर का वैसे तो रहन-सहन, खान-पान, संग-साथ, निवास सभी देवताओं से पृथक और विचित्र है। सृष्टि की रचना और पालन करने की वाही-वाही लूटने का कार्य तो ब्रह्मा और विष्णु के हिस्से में आया है, क्योंकि भोलेनाथ के हिस्से में संहार करने अर्थात सबको मारने का जो जल्लादी काम आया है, उसे भला कौन पसंद करेगा। धरती पर आकर भक्तों को सुख प्रदान करने तथा राक्षसों, दैत्यों, दानवों का विनाश करने का श्रेय भी केवल विष्णु भगवान को ही मिलता है। भगवान शिव के यद्यपि 11 रूद्र रूप होने का वर्णन मिलता है, परन्तु विशेष रूप से हनुमानजी को ही भगवान शिव के ग्यारहें रूद्र का अवतार माना गया है। इसके अलावा भगवान शिव ने विष्णु की तरह मछली, कछुआ, वाराह, हंस आदि योनियों के साथ ही मनुष्य रूप में राम-कृष्ण की तरह अवतार लेकर लम्बे समय तक लीला करने का विशेष आख्यान नहीं मिलता। फिर भी देवों में महादेव शंकर को ही क्यों कहा गया है, इस पर प्रकाश डालने से पहले हमें महादेवजी की जीवनचर्या पर गौर करना आवश्यक होगा।

प्रथम तो शिवजी का पहनावा अघो वस्त्र के नाम पर केवल मृगछाला है। यह भी संभवतया चित्रकारों ने अपनी कल्पना से दर्शायी हो। गले में फूलों के हार के स्थान पर फुंफकार करते हुए काले नागों की माला पहने रहते हैं, खाने को मिष्ठान-पकवान के स्थान पर भांग-धतुरा, पीने को विष और शरीर पर सुंगधित, इत्र-फूलेल के स्थान पर भस्मी रमाये रहते हैं। भभूत भी किसी देशी गाय के गोबर से बने हुए कंडे अथवा चंदन की लकड़ी की नहीं बल्कि श्मसान में चिता पर जले हुए मुर्दे की होती है। संग-साथ भी स्वर्ग के देवी-देवताओं का नहीं, बल्कि भूत-प्रेतों की जमात का रहता है। इसी प्रकार सवारी हाथी, घोड़ा, रथ की नहीं बल्कि नंदी (बैल) की सुशोभित रहती है। रहने के लिए स्वर्ग अथवा धरती की वातानुकुलित अट्टालिकाएं, बहुमंजिला भवन नहीं, अपितु श्मसान में अथवा हिमाच्छादित कैलाश पर्वत पर रहता है। इतनी ढेर सारी विसंगतियों के बावजूद भी भगवान शंकर ही एक ऐसे देव हैं, जिन्हें देव नहीं महादेव कहा गया है। जिनकी सानी कोई नहीं, आखिर क्यों ?

उत्तर के लिए वेद-स्मृति अथवा पुराणों के गहन अध्ययन व्याख्याओं की आवश्यकता नहीं। यदि वास्तव में शिव तत्व क्या है? इसको समझना है, तो हमें गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरित मानस के अंतिम सांतवें सौपान उत्तर काण्ड के दोहा क्रमांक 207 ख के पश्चात् प्रारंभ रूद्राष्टक- ”नमामीश मिशान निर्वाण रूपम . . . को देखना होगा। भगवान शंकर का देव से महादेव बनने का सिलसिला तभी प्रारंभ हो गया था, जब समुद्र मंथन के समय अमृत से पहले सर्वप्रथम जो हलाहल विष निकला, उस समय उससे बचने, संसार को सुरक्षित रखने की सामथ्र्य मानव, दानव, देवताओं की कौन कहे, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पोषणकर्ता विष्णु भी उससे बचने का उपाय नहीं ढूंढ पा रहे थे। उस समय उस विषम परिस्थिति में उस हलाहल जहर की ज्वाला से संसार को बचाने के लिए जब देवता, दानव सब इधर-उधर बंगले झांक रहे थे, तब शिवजी ने अपने अपूर्व साहस व शक्ति का परिचय देते हुए पलक झपकते ही उस हलाहल विष का पान कर उसे कंठ में रोककर समस्त विश्व को बचा लिया। काश उस समय शिवजी उस हलाहल विष का पान नहीं करते, तो न देवता बच पाते न दानव व मानव ही। परमाणु बम की तरह सम्पूर्ण सृष्टि उस जहर की ज्वाला से जलकर खाक हो सकती थी।

शिवजी में जितने गुण संसार की भलाई के लिए हैं उन सबका पृथक-पृथक यदि वर्णन किया जाए, तो उसका कही अंत ही नहीं होगा। वृहद् शिवपुराण भी केवल एक प्रकार से भूमिका मात्र हैं। शिवजी को इसीलिए सत्यम, शिवम, सुन्दरम् के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जो सत्य भी है, कल्याणकारी भी है और सुन्दर भी है।

शिवजी ने न तो कभी मान-सम्मान की अपेक्षा की और न कभी अपमान से व्यथित ही हुए। जब शिवजी अपने ससुराल हिमाचल के यहां उनकी पुत्री पार्वती से विवाह करने गए, तब उनको सुन्दर, श्रृंगारित दूल्हे में नहीं देखकर भूत-प्रेतों के साथ सांप लपेटे नंदी पर बैठे देखा, तो पार्वती की माता मेना सहित सभी भयभीत होकर दूल्हे राजा का स्वागत करना तो भूल गए, उल्टा अपमान करने लगे, फिर भी इस अपमान से भोलेनाथ के मन पर कोई विपरित असर नहीं हुआ।

 भस्मासुर को अपने भोलेपन में आकर दूसरों के सिर पर हाथ रखते ही भस्म होने का वरदान तो दे दिया, परन्तु जब वह परीक्षा के तौर पर शिवजी के सिर पर ही हाथ रखने को तत्पर हो गया तो शिवजी को वहां से भागना पड़ा। आगे-आगे शिवजी और पीछे-पीछे भस्मासुर दौड़ रहा था। दूसरों को भस्म करने का वरदान देने की क्षमता जिसमें हो वह भस्मासुर को भस्म करने अथवा वरदान वापस लेने की क्षमता रखते हुए भी शिवजी ने अपने दिए हुए वरदान से मुकरना अथवा उसे झूठा करना नहीं चाहा। यह तो गनीमत रही कि उस समय भगवान विष्णु ने वहां आकर चालाकी से भस्मासुर का हाथ उसी के सिर पर रखवाकर उसकी परीक्षा लेने की इच्छा की पूर्ति कर दी और परिणाम स्वरूप खुद भस्म हो गया।

 भगवान विष्णु के सतयुग, त्रेता तथा द्वापर युग में अभी तक 23 अवतार हुए हैं कलयुग का 24वां कल्कि अवतार होना शेष है। सभी अवतारों में भगवान धरती पर आकर पुन: अपने साकेत, गौलोक अथवा क्षीर सिन्धु में वापस चले जाते हैं। इनमें से उक्त किसी भी धाम को जीते जी हमने अपनी इन आंखों से न तो देखा है और न कोई देख सकेगा। इसके अलावा जो पुण्यशाली महापुरूष इन लोकों में गए होंगे उन्होंने फिर कभी आकर बताया नहीं कि वे लोक कैसे हैं ? परन्तु भगवान शंकर जहां निवास करते हैं वह कैलाश मानसरोवर हमारी इस धरती पर ही है, जिसे हम जीते जी सशरीर जाकर दर्शन कर सकते हंै। प्रतिवर्ष सैकड़ों दर्शनार्थी जाते भी हैं और वहां पर निष्ठावान सच्चे भक्त को प्रत्यक्ष रूप से शिवजी के दर्शन होने की सच्ची घटनाएं भी प्राय: गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका कल्याण आदि में समय-समय पर प्रकाशित होती रहती है।

 वर्तमान संदर्भ में शिवजी का सबसे बड़ा प्रेरक अनुकरणीय सद्गुण जो है, वह है शिवजी का सबके प्रति समभाव, समस्नेह/शिवजी के पास चाहे कोई साधु जाए, अथवा असाधु, शिवजी दोनों से एक जैसा बर्ताव करते हैं और यही कारण रहा कि जहां राक्षस, विष्णु भगवान, देवताओं के कट्टर दुश्मन रहे वे ही भगवान शंकर की प्रशंसा करते अछाते नहीं है। राक्षसों ने जब भी तपस्या की सभी ने अधिकांशत: विष्णु की कभी भी आराधना नहीं करते हुए भगवान शिव की ही उपासना की। रावण आदि त्रिलोक विजयी, दुर्दान्त राक्षसों के यदि कोई इष्ट थे, तो वह केवल शंकर ही थे, इसलिए जहां इन व्यक्तियों को भगवान विष्णु का नाम लेने तक से नफरत व चिड़ थी इनका नाम लेने वालों को वे प्रताडि़त करते थे, वहीं भगवान भोलेनाथ का हर-हर महादेव कहकर जयघोष करने में गौरव समझते थे। वर्तमान लोकतंत्र की राजनीति एक दूसरे को सांप, बिच्छु और दीमक कहकर अपमानित करने में बड़प्पन समझती है, परन्तु वह यदि शिवजी की इस गुणगृहिता को ग्रहण कर ले तो शिवरात्री पर्व सार्थक हो जाए।

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 शिवजी को आदि देव भी कहा गया है, जिसका तात्पर्य शिवजी का न तो जन्म है और न ही मृत्यु। सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी की आयु सीमित है। ब्रह्मा की आयु पूर्ण होते ही सृष्टि का लय हो जाता है और उसके बाद पुन: दूसरा ब्रह्मा प्रकट होकर पुन: सृष्टि की रचना करता है। भगवान विष्णु यद्यपि आयु की सीमा से परे हैं, परन्तु जब वे राम-कृष्ण आदि रूपों में धरती पर जन्म लेते हैं, तब उनकी आयु सीमा भी निर्धारित हो जाती है, परन्तु शंकर का न तो कहीं जन्म है, न हीं कहीं मृत्यु और इसलिए उन्हें महादेव के साथ ही आदि देव भी कहा जाता है। हनुमान जो की भगवान शिव के ही अवतार माने गए हैं, वे भी इस समय इस धरा पर प्रत्यक्ष है और जब तक यह सृष्टि रहेगी बजरंगबलि प्रत्यक्ष रहकर गौैस्वामी तुलसीदासजी को दर्शन देने की तरह जिन भक्तों की सच्ची निष्ठा, विश्वास और भक्ति से होगी, उन्हें दर्शन देकर उनका कल्याण अवश्य करते रहेंगे।

 भगवान राम ने जिन शिवजी के संबंध में यह कहा हो- ”शिवद्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहु मोहि न पावा।। ऐसे अवर्णनीय, अनंत गुणों के भण्डार, देवों के देव महादेव के चरणों में शिवरात्री के इस पावन पर्व पर कोटिश: प्रणाम। शत्-शत् वन्दन।

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